इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने के लिए हमें बहुत दूर माताओं और बहनों के हवाले कर दिया गया, दूसरी कौमों से अपनी मोहब्बत का। हमलोग इस जाने की जरूरत नहीं। बस आसपास के माहौल ताकि पूर्वाग्रहों की काली छाया से दूर रहा जा मामले में कंजूस हैं। आज दूसरी कौम कुछ करती पर नजर दौड़ा देखिए, हालात का इशारा समझ में सके। यही वजह है कि इन्हें सिख, दलित और है, तो हम खाना, चाय-पानी लेकर जाते हैं? नहीं आ जाएगा। 70 दिन बीत गए, देश की 14 ईसाई धड़ों का समर्थन मिला। तमाम सवर्ण हिंदू जाते।... हम भी उनके त्योहारों में हिस्सा लें। हमें फीसदी आबादी मुखर रूप से आंदोलित है। उसे भी खुले मन से यहां आते-जाते रहे। दिल्ली के बताना होगा कि हम भी इस देश से प्यार करते हैं, नागरिकता संशोधन कानून और एनपीआर से चुनावों में शाहीन बाग के नाम पर सांप्रदायिकता यह हमारा मुल्क है। तय है, पहले भी ज्यादातर परहेज है। प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, रक्षा मंत्री समेत के प्रवाह के प्रयास भी इसीलिए असफल मुस्लिम यही राय रखते थे, पर राजनीतिक केंद्रीय कैबिनेट के तमाम सदस्य दिलासा दिला रहे।देखते-देखते नेता विहीन शाहीन बाग शीघ्र ही प्रतीकवाद के जरिए खास तरह का लबादा ओढ़ाने चुके हैं कि उन्हें डरने की जरूरत नहीं। किसी एक प्रतीक बन गया और इसकी प्रतिध्वनि देश के की कोशिश की गई। यह पहला मौका है, जब इस भारतीय नागरिक का बाल बांका नहीं होने जा तमाम हिस्सों में सुनी गई। कई शहरों में कुटैव से मुक्ति की छटपटाहट साफतौर पर दीख रहा, पर आशंका का वातावरण खत्म होने का नाम महिलाएं-बच्चे धरने पर बैठे। जहां जुलूस निकाले रही है। क्या मुस्लिम महिलाएं और नौजवान अपनी नहीं ले रहाइसी प्रतिरोध के चलते कुछ दिनों गए, वहां भी धार्मिक की जगह राष्ट्रीय प्रभुसत्ता के पृथक भविष्यगाथा गढ़ रहे हैं? कुछ लोग कहपहले तक दिल्ली वालों के लिए अपरिचित शाहीन प्रतीकों को आगे रखा गया। इस आंदोलन ने एक सकते हैं कि यह सरकार की सख्ती का कमाल बाग अब अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां अर्जित कर रहा है। बात तो साबित कर दी है कि भारतीय मुसलमान है। सरकार ने एनपीए और नागरिकता संशोधन वहां जमी महिलाएं सरकार के आश्वासनों और अब अपनी नई पहचान गढ़ने के लिए प्रयासरत कानून पर सफाई दी, तो यह भी साफ कर दिया अन्य प्रयासों के बावजूद धरना खत्म करने को हैं। अब तक कुछ लोग उन पर यह विचार थोपने कि इन्हें वापस नहीं लिया जाएगा। उत्तर प्रदेश में तैयार नहीं हैं। नतीजतन, नोएडा को फरीदाबाद की कोशिश करते थे कि हम मुसलमान पहले हैं, हिंसा का जवाब जिस सख्ती से दिया गया, उसका और दक्षिण दिल्ली से भी संदेश स्पष्ट था। जोड़ने वाली सर्वाधिक आने वाले दिनों में महत्वपूर्ण सड़क बंद है। अमित शाह नए कानून लाखों लोगों को इसकी के समर्थन में सार्वजनिक वजह से यातायात सभाएं करने जा रहे हैं। संबंधी दुर्गति का हालांकि, ऐसे सामूहिक शिकार होना पड़ रहा आत्मचिंतन पहले भी हुए है। आजादी के बाद हैं। अपनी आंखों देखे संभवतरू यह पहला एक बदलाव का जिक्र अवसर है, जब राष्ट्रीय करना चाहूंगा। इंदिरा राजधानी का कोई गांधी की हत्या के बाद प्रमुख मार्ग किसी पूरे देश में सिखों के प्रतिरोध के चलते इतने खिलाफ जानलेवा हिंसा दिनों तक रुका पड़ा भड़क उठी थी। नफरत हो। यह आंदोलन इतना के उस उबलते लावे को लंबा कैसे खिंच गया? देखकर लगता था, जैसे वजह साफ है, यहां हमारा मानसिक विभाजन जमे लोगों ने हो गया है, पर उत्तेजना नकारात्मक तर्कों और किसी देश के नागरिक बाद में। पहली बार पूरे का अलाव बहुत जल्दी तत्वों को अपने प्रतिरोध का हिस्सा नहीं बनने ठंडा पड़ गया। इसका सर्वाधिक संताप बहुसंख्यकों देश के पैमाने पर मुस्लिम इस विचार को खारिज दिया। अब तक मुस्लिमों के आंदोलन अपनी के मन में देखा गया। मैं बहैसियत पत्रकार उस करते दिखे। मुनव्वर राणा जैसे मशहूर शायर ने पहचान बताने और जताने के लिए होते थे। इनमें समय दर्जनों लोगों से मिला और हरेक को कहते जब कहा कि इस देश पर आठ सौ बरस हमारी धार्मिक नारे लगते थे और हरे झंडे लहराए जाते पाया कि जो हुआ, बहुत गलत हुआ। सिखों का हुकूमत रही है, तो उन्हें अपनी कौम से ही थेइससे समाज के बड़े तबके में दुराव की संत्रास, अन्यों का संताप बन चुका था। नतीजतन, भावना प्रबल हो उठती थी। शाहीन बाग आंदोलन मुखालफत का सामना करना पड़ा। बाद में, वारिस इस खूरेजी से पहले सिखों को लेकर जो चुटकुले पठान भी इसी दुर्गति के शिकार हुए। यही वजह को भी शुरुआती दिनों में कुछ लोगों ने उत्तेजक है कि शाहीन बाग में "जिन्ना वाली आजादी' का बनते थे, वे भी धीरे-धीरे हवा में विलुप्त होते चले नारों और तकरीरों के जरिए धार्मिक रंग देने की गए। यह मामूली परिवर्तन नहीं, बल्कि समूचे नारा दोहराया नहीं गया। महिलाओं की अगुवाई के कोशिश की, पर ऐसे लोगों को प्रदर्शनकारियों ने समाज की गहरी आत्मस्वीकृति थी। बहादुर सिख कारण यह धरना पुलिस के हस्तक्षेप से तो बचा बाहर कर दिया। यहां राष्ट्रगान, राष्ट्रीय ध्वज और कौम भी बहुत जल्द अपनी त्रासदी भूलकर फिर से ही, कठमुल्ले भी इस पर कब्जा नहीं कर सके। वे राष्ट्रीय संविधान के जरिए बार-बार जताने कीउठ खड़ी हुई। गिरने, लड़खड़ाने और सम्हलकर पुरुषों के मुकाबले संयत और कारगर साबित हुई कोशिश की गई कि हम मुसलमान जरूर हैं, परआगे बढ़ चलने की हिन्दुस्तानी रवायत पुरानी है, हैंइस दौरान तमाम तकरीरों में खुद को पृथक हमारी भारतीयता में किसी को शक नहीं होना पर हम इस परंपरा को तभी कायम रख सकते हैं, पहचान के जंग लगे पिंजरे से निकालने के भी चाहिएधरनास्थल पर सभी धर्मग्रंथों के पाठ हुए जब दोनों पक्ष साझी सहमतियों के लिए गुंजाइश और गांधी, भगत सिंह, आंबेडकर जैसे नेताओं के आह्वान हुए। इंदौर के एक सज्जन का वायरल बनाकर रखें। आंदोलनकारी भूले नहीं, हर वीडियो इस तथ्य की मुनादी करता है। वह कह चित्र शिद्दत से प्रदर्शित किए गए। यही नहीं, इस आंदोलन की एक मियाद होती हैरहे थे कि वक्त आ गया है कि हम इजहार करें धरने को किसी नेता की बजाय नानियों, दादियों,
हर आंदोलन की एक मियाद होती है।